सब प्राणी की देह में बैठे हैं भगवान
यन्त्र आरुढ़ सब भूत को, प्रकृति नचाती नाच।।
अठारहवाँ अध्याय-मोक्षसंन्यासयोग
सन्यास त्याग के तत्व को प्रथक-प्रथक मैं
जान
महाबाहु हे हृषीकेश वासुदेव भगवान।। 1।।
काम्य कर्म के त्याग को विज्ञ कहें
सन्यास
सकल कर्म के त्याग को त्याग विवेकी जान।। 2।।
कर्म दोष से युक्त विद और त्यागने योग्य
यज्ञ दान तप कर्म सब नहीं त्याग के योग्य।। 3।।
सन्यास त्याग के विषय में,
निश्चय
मम अनुसार
त्याग त्रिविध विध जान तू,
पुरुष
श्रेष्ठ हे पार्थ।। 4।।
यज्ञ दान तप कर्म सब,
नहीं
त्याग के योग्य
यज्ञ दान तप शुचि करें,
बुद्धिमान
को पार्थ ।। 5।।
यज्ञ दान तप कर्म को और सकल कर्तव्य
आसक्ति कर्म फल त्यागकर,निश्चित मत मम जान।। 6।।
सन्यास नियत सब कर्म से,
उचित
नहीं है त्याग
मोह त्याग से त्याग जो,
तामस
उसको जान।। 7।।
कर्म सभी दुःख रूप हैं,
देह
क्लेश भय त्याग
मिले न फल कुछ त्याग से,
ऐसा
राजस त्याग।। 8।।
नियत कर्म कर्तव्य है,
करे
आस फल त्याग
वही त्याग सात्विक समझ,
मम
मत है यह पार्थ ।। 9।
कुशल कर्म आसक्ति नहिं,
अकुशल
से नहिं द्वेष
सत्व युक्त संशय रहित बुद्धिमान सन्यासि।। 10।।
पूर्ण रूप से कर्म का,
त्याग
शक्य नहिं प्राणि
सकल कर्म फल त्यागि जो,
त्यागी
उसको जान।। 11।।
मिश्रित इष्ट अनिष्ट फल पुरुष सकामी
प्रेत
सन्यासी जो कर्म से नहीं कर्म फल काल ।। 12।।
सकल कर्म की सिद्धि के,
पांच
हेतु उपाय
साँख्य शास्त्र वर्णन हुआ,
जान
पार्थ जेहि अन्त।। 13।।
कर्म सिद्धि के पांच हेतु कर्ता और आधार
विविध प्रथक चेष्टा करण और पांचवां देव।। 14।।
मन वाणी अरु देह से न्यायोचित विपरीत
जो कुछ करता कर्म नर हेतु पांच तू जान।। 15।।
विशुद्ध आत्म कर्ता समझ,
नहिं
यथार्थ का ज्ञान
शुद्ध नहीं धी कर्म गति दुर्मति उसको जान।। 16।।
जेहि कर्ता का भाव नहिं,
नहीं
बुद्धि संसार
सब लोकों को मार कर,
नहीं
हन्ति नहीं बन्ध।। 17।।
ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय है,
जिससे
होता कर्म
कार्य करण क्रिया मिले उपजे संग्रह कर्म।। 18।।
ज्ञान कर्म कर्ता सभी,
भेद
सांख्य गुण तीन
भलीभाँति हे पार्थ तू,
उनको
मुझसे चिन्ह।। 19।।
पृथक पृथक सब भूत में,
एक
अव्यय को देख
जान ज्ञान सात्विक उसे,
अव्यय
देखे एक।। 20।।
भाव अनेकों भूत सब भिन्न भिन्न जे ज्ञान
ज्ञान भिन्नता देखता,
राजस
उसको जान।। 21।
एक कार्य इस देह में,
पूर्ण
रूप आसक्त
हेतु रहित तात्विक नहीं,
तुच्छ
वो तामस ज्ञान।। 22।।
कर्म नियत आसक्ति गत और नहीं फल चाह
बिना राग अरु द्वेष के उसे तू सात्विक जान ।। 23।।
कठिन परिश्रम कर्म जो करे भोग की चाह
अहंकार के साथ जो कर्म वो राजस जान।। 24।।
पौरुष हिंसा हानि अरु नहिं विचार परिणाम
कर्म आरम्भ अज्ञान से तामस उसको जान।। 25।।
अहं संग से रहित जो,
उत्साह
धैर्य से युक्त
सिद्धि असिद्धि निर्विकार है,
सात्विक
कर्ता जान।। 26।।
राग कर्म फल आस जेहि लोभी अशुचि स्वभाव
हर्ष शोक से युक्त जो हिंसक राजस जान।। 27।
अयुक्त घमण्डी प्राकृत अलस विषादी धूर्त
दीर्घ सूत्र पर वृत्ति नाश,
कर्ता
तामस जान।। 28।।
भेद धंनजय बुद्धि धृति त्रिगुण जान गुण
दोष
पृथक पृथक विस्तार से कहा गया सो जान।। 29।।
बन्धन मोक्ष भय अभय कर्म अकर्म का ज्ञान
प्रवृत्ति निवृत्ति जो जानती बुद्धि वो सात्विक पार्थ।। 30।।
बुद्धि यथार्थ न जानती कर्म अकर्म का भेद
कार्य अकार्य न जानती बुद्धि वो राजस पार्थ।। 31।।
अधर्म धर्म है मानती तामस से आवृत्त
सभी अर्थ विपरीत ले बुद्धि तमस हे पार्थ।। 32।।
ध्यान योग धारण करे,
मन
इन्द्रिय अरु प्राण
अव्यभिचारिणि धारणा,
सात्विक
धृति वह पार्थ।। 33।।
धर्म अर्थ अरु काम को,
जिस
धृति धारण पार्थ
लिए कामना प्राणि जिस,
धृति
वह राजस जान।। 34।।
शोक विषाद स्वप्न भय,
जिस
धृति धारण पार्थ
दुष्ट बुद्धि नहिं छोड़ता,
धृति
वह तामस ज्ञान।। 35।।
मुझसे सुन वह तीन सुख भरत श्रेष्ठ हे
पार्थ
रमत नित्य अभ्यास जेहि होत दुखों का अन्त।। 36।।
साधन काले जान विष और अमृत परिणाम
आत्म बुद्धि उत्पन्न वह सात्विक उसको जान।। 37।।
जो सुख उपजे पार्थ हे,
इन्द्रिय
विषय परिणाम
योग काल जो अमृत सम और जहर परिणाम।। 38।।
मोहित करता आत्म को भोग काल परिणाम
निद्रा अलस प्रमाद सुख तामस उसको जान।। 39।।
भूचर नभचर देव अरु नहीं कोउ है सत्व
प्रकृति जन्म त्रय गुण रहित,क्वचित कहीं भी होय।। 40।।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य के और शूद्र के
कर्म
निज स्वभाव उत्पन्न गुण,
कर्म
विभाजित जान।। 41।।
श्रद्धा आर्जव अरु क्षमा,
सम
दम तप अरु शौच
जान विज्ञान ज्ञान को,
ब्रह्म
स्वाभाविक कर्म।। 42।।
शौर्य धीरता तेज दक्षता और नहीं रण छोड़
कभी
दान ईश का भाव सब,
क्षात्र
स्वाभाविक कर्म।। 43
व्यापार कर्म कृषि गौरक्षा,
वैश्य
स्वाभाविक कर्म
सेवा ही कर्तव्य है,
शूद्र
स्वाभाविक कर्म।। 44।।
निज निज कर्मों में लगा परम सिद्धि नर
प्राप्त
जेहि विधि पाता सिद्धि को,तेहि विधि को तू जान।। 45।।
जिससे यह जग व्याप्त है प्रवृत्ति भूत जेहि ईश
परम सिद्धि को प्राप्त नर,
निज
कर्मन से भक्ति।। 46।।
विगुण धर्म निज श्रेष्ठ है,
निपुण
आचरण परधर्म
नहीं पाप को प्राप्त हो,
स्वभाव
नियत कर कर्म।। 47।।
दोष युक्त पर नहिं तजे,
सहज
स्वाभाविक कर्म
अग्नि धूम आवृत्त है,
दोष
व्याप्त सब कर्म।। 48।।
मति आसक्त स्पृहा रहित,
जिसने
जीता चित्त
परम निरत निरधार को,
सांख्य
योग से ज्ञात।। 49।।
ज्ञान योग निष्ठा परम,
पार्थ
जान संक्षेप
परम सिद्धि को प्राप्त नर,
ब्रह्म
भूत हो जात।। 50।।
शुद्ध बुद्धि से युक्त हो,
मन
इन्द्रिय धृति माहि
शब्द विषय का त्याग कर,
राग
द्वेष से मुक्त।। 51।।
एकान्त देश सेवन करे युक्ताहार को
प्राप्त
वश मन वाणी देह को,
वैराग्य
द्रढ़ी कर ध्यान।। 52।।
अंहकार बल दर्प परिग्रह काम क्रोध का
त्याग
शान्त चित्त ममता रहित ब्रह्म भाव को प्राप्त ।। 53।।
ब्रह्म भूत आनन्द में,
मुक्त
शोक अरु आस
समत्व भाव सब भूत में,
परा
भक्ति मम प्राप्त ।। 54।।
जो हूँ जितना और मैं,
तत्व
भक्ति वह जान
तत्व जान उस भक्ति से,
मम
प्रविष्ट हो जात।। 55।।
सदा करे सब कर्म को,
मम
आश्रय जो भक्त
शाश्वत कृपा को प्राप्त कर,
अविनाशी
पद प्राप्त।। 56।।
मन से अर्पित कर्म मम,
नित
आश्रित हो पार्थ
बुद्धि योग आरूढ़ हो,
नित
मम स्थित जान।। 57।
स्थित मुझमें चित्त कर,
कृपा
पार सब दुर्ग
अहंकार वश नहिं सुने,
तू
विनाश को प्राप्त।। 58।।
अहंकार आश्रय लिए नहीं करूंगा युद्ध
मिथ्या निश्चय जान यह,
प्रकृति
नियोक्ष्यति युद्ध।। 59।।
नहीं चाह जिस कर्म को,
मोह
वशी हो पार्थ
परवश हो करना हि है,
निज
स्वभाव वश कर्म।। 60।।
सब प्राणी की देह में बैठे हैं भगवान
यन्त्र आरुढ़ सब भूत को,
प्रकृति
नचाती नाच।। 61।।
सभी भाव से पार्थ तू प्रभु शरणागति होय
परम शान्ति शाश्वत परम,
परम
कृपा से प्राप्त।। 62।।
गोपनीय अति गूढ़तम कहा ज्ञान मैं तोहि
पूर्णतया यह तोल कर जस चाहे तस वर्त ।। 63।।
परम गूढ़तम वचन को,
फिर
से सुन हे पार्थ
तू अति प्रिय है मोहि को,
कहूँ
वचन हित तोर।। 64।।
मन मुझमें कर मोर भक्त बन,
मम पूजन कर मम प्रणाम कर
मुझे प्राप्त तू सत्य वचन मम,
तू अति प्रिय है तू अति प्रिय है।। 65।।
सभी धर्म को त्यागकर मम शरणागति पार्थ
मुक्त करूँ सब पाप से,
नहीं
शोक को प्राप्त।। 66।।
भक्ति रहित तप से रहित,
नहीं
वचन यह ज्ञान
नहीं श्रवण की चाह है,
दोष
दृष्टि मम पार्थ।। 67।।
परम गुह्य इस ज्ञान को,
परम
प्रेम मम भक्त
कहे प्राप्त वह मोहि को,
इसमें
नहिं संदेह।। 68।।
नहिं नर कोउ दूसरा,
करे
कार्य प्रिय मोहि
नहीं और कोउ जन्म भुवि उससे प्रियतर भक्त।। 69।।
पढे धर्म संवाद नर हम दोनों के बीच
ज्ञान यज्ञ से पूज्य मैं,
मम
मत ऐसा जान।। 70।।
श्रद्धा से करता श्रवण,
दोष
दृष्टि से हीन
मुक्त पाप नर लोक शुभ श्रेष्ठ कर्म जन प्राप्त।। 71।।
श्रवण किया एकाग्र मन,
परम
ज्ञान को पार्थ
हुआ धनंजय नष्ट क्या,
तामस
जन्य सम्मोह।। 72।।
मोह नष्ट मम तव कृपा,
हे
अच्युत आदेश
प्राप्त हुयी स्मृति मुझे,
संदेह
गए स्थित स्वयं।। 73।।
सुना महात्मा पार्थ का और कृष्ण संवाद
यह अद्भूत विस्मय परम,
रोमहर्ष
नर श्रेष्ठ।। 74।।
कृपा व्यास की श्रवण मम,
गूढ़
गूढ़तम योग
प्रत्यक्ष श्रवण मम यह वचन,
योगेश्वर
श्री कृष्ण।। 75।।
राजन केशव पार्थ का यह अद्भुत संवाद
बार बार हर्षित रहूँ,
सुमिर
पुण्य संवाद।। 76।।
राजन मैं हर्षित रहूँ,
देख
विलक्षण रूप हरि
सुमिर सुमिर विस्मित परम, मोर चित्त हर्षाय।। 77।।
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं,
जहाँ
धनुर्धर पार्थ
वहाँ विजय वैभव परम,
नीति
अचल मम ज्ञान।।
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